Tuesday, February 18, 2014

क्या है जीत ?

हैं भीड़ की नज़रें टिकी तुझपर..
ख़्वाबों कि स्याही सजी मुझपर..
छूने कि ख्वाहिश है की आज मैंने..
हार से भी यारी निभायी है मैंने...

ये कुछ पंक्तियाँ मैंने सम्बोधित की हैं उस जीत को, जिसे पाने की चाहत में अर्ज़े गुज़र जाते हैं. रातें दिन बन जाती हैं और दिन और भी खुशनुमा। 

यूं तो हम सभी अपनी- अपनी ज़िंदगी में कुछ न कुछ बड़ा करने कि चाहत रखते हैं, पर ये समझ ही नहीं पाते की क्या हैं वो रुकावटें जिनकी वजह से हम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाते।  ज़िंदगी से रुस्वा होना तो जैसे, अब आदत सी बन गयी है।

दूसरों की जीत को ही देख कर आंसू बहा लिया करते हैं पर कभी कोशिश का बीज बोने की ज़रुरत नहीं समझते । "जो कि थी कोशिश उसने भी कल किसी रोज़, तभी जीत का स्वाद लिया है आज उसने"

जीत कोई ज़िंदगी कि आखरी मंज़िल नहीं।  वो तो बस एक प्रेरणा है, जिसे पाने की चाहत में कुछ न कुछ नया विकसित होता ही रहता है।

यूं तो हार और जीत ज़िंदगी के दो पहलू हैं, परन्तु हार में ही छीपी जीत के भी क्या कहने हैं। मिल जाए तो ठीक वरना हार भी तो एक पहलु है। 

धन्यवाद। 




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