बचपन से ही सुनते आ रहे हैं की "IF YOU CAN'T CONVINCE THEM, CONFUSE THEM".
इसी व्यंगय की तरह मालूम पड़ती है बड़े परदे पर चर्चित रही अनुराग कश्यप के निर्देशन में बनी फिल्म 'बॉम्बे वेलवेट' ।
फिल्म जगत में बढ़ते फिल्मकारों की तादाद के चलते आज के युग में ये समझना काफी मुश्किल हो चला है की कौन सी फिल्म को बड़े परदे पर देखने के लिए जाया जाये और किसे नहीं । बॉम्बे वेलवेट 2015 में आयी ऐसी फिल्म है जिसके ट्रेलर को देखकर लगा के हाँ इसे बड़े परदे पर देखा जा सकता है। इसलिए मन में उत्तेजना छायी तो पहले दिन का पहला शो बुक कर दिया, परन्तु जल्द ही यह फिल्म लोगो की समीक्षाओं के बीच घिरने लगी और सोशल मीडिया ने वीकएंड में ही तय कर दिया के फिल्म लोगों के मन को कुछ खास भा नहीं रही। हालांकि कुछ समीक्षक उनमे ऐसे भी थे जिनकी इंटेलेक्टुअल सोच ने फिल्म के रूख को काफी हद तक समझने की कोशिश की।
जैसा की अनुराग कश्यप जी ने कहा की यह फिल्म उनके लम्बे अरसे से बुनते आ रहे एक सपने की छवि है।वाकई में ऐसा सपना अगर भारत में हर किसी को आने लगे तो हम भारत वासी यह कहना छोड़ देंगे की भारत में अच्छी फिल्मों का भविष्य डूबता हुआ नज़र आ रहा हैं। मुझे यह इस लिए कहना पढ़ रहा है क्यूंकि ज़्यादातर भारत के लोगों की यही प्रतिक्रिया रहती है और वे लोग भारत की फिल्मों की तुलना विदेशों से करने लगते हैं। फिल्म बनाने के प्रतिकिया अदबुध है और हर किसी का अपना तरीका है उसकी खूबसूरती को प्रस्तुत करने का।
इस ब्लॉग के शुरुवात में मैंने एक व्यंगय कहा है, जिसे की अनुराग कश्यप जी ने बखूबी इस फिल्म में संजोया है। आजकल की युवापीढ़ी में से कुछ ही ऐसे लोग होंगे जो जानते हैं की बॉम्बे वेलवेट की गड़ना कहाँ से हुई थी। यहाँ बात सिर्फ भारत के लोगों की हो रही है। ज्यादातर लोग तो बड़े परदे पर बस फिल्म का लुफ़्त उठाने जाते हैं। 9 से 6 की नौकरी करने के बाद उनके पास कहाँ इतना वक़्त है की वो इस तरह की फिल्मों को अपना समय दे सकें, पर क्यूंकि गैंग्स ऑफ़ वासेपुर की चर्चा के चलते लोगो को लगा के इस फिल्म में भी कुछ विदेशी अंदाज़ में देसी देखने को मिलेगा। माफ़ कीजियेगा पर अनुराग कश्यप जी अपनी हर फिल्म में कुछ ना कुछ नया करने की सोचते हैं।
अब अगर फिल्म की और अपना ध्यान केंद्रित किया जाए तो आपको 1960 के दशक के स्ट्रीट फाइटर 'जॉनी बलराज' की कहानी देखने को मिलेगी। मैं ज्यादा फिल्म की कहानी के बारे में नहीं बताऊंगा क्यूंकि अब काफी समय हो चला है फिल्म को रिलीज़ हुए (5 दिन) और ज्यादातर लोग इसकी कहानी जान ही गए हैं।
फिल्म में काम करने वाले कैमरामैन ने बखूबी इस फिल्म की खूबसूरती को प्रदर्शित किया है, जिससे की बिना 19वी सदी में जाए हम देख सकते हैं की कैसा रहा होगा वो ज़माना जब हमारा जन्म भी नहीं हुआ था। फिल्म की एडिटिंग की बात की जाए तो मुझे अभी भी याद है की मेरे साथ वाली कुर्सी पर बैठा एक युवक फिल्म के एंडिंग पार्ट को देखकर कहने लगा, " इस तरह की फिल्म का मूड एक एडिटर ही बना सकता है"। उसके कहने का मतलब था के ऐसा लग रहा है के वह खुद अपने आप को उस फिल्म में जीता हुआ महसूस कर रहा है।
फिल्म में कुछ ऐसे पल थे जिन्हे देखकर पहले से मालूम पढ़ रहा था की फिल्म के अंत में दोनों मर जाएंगे। अंत में लिखा आया के रोज़ी बच गयी। वो सिर्फ ऑडियंस को गुमराह करने का तरीका लगा। अगर गौर से देखा जाए तो आपको मालूम पड़ता है की फिल्म के क्लाइमेक्स का म्यूजिक ऑस्कर अवार्डेड फिल्म Birdman की म्यूजिक से काफी हद तक मिलता झूलता है। यह भी थिएटर में बैठे एक शख्स की ज़ुबानी ही है जिसे की वह युवक नहीं सह पाया और बोला के भारत के फिल्मकारों में कॉपी करने का ट्रेंड कब जाएगा!
कई बार फिल्म बनाते बनाते फिल्मकार अपनी कला में इतना ज़्यादा मगन हो जाते हैं की उन्हें याद ही नहीं रहता के आम आदमी इतनी ज़्यादा गहराईयों को समझने में सक्षम नहीं है। मैं दोबारा, सिर्फ भारत के लोगों की बात कर रहा हूँ क्यूंकि उन्हें ज़्यादातर सॉफ्ट कंटेंट एन्जॉय करना अच्छा लगता है, जैसे की Dubsmash और Vine जैसे प्लेटफार्म।
फिल्मकार की नज़र से देखा जाए तो मैं यही कहूँगा की बॉम्बे वेलवेट सिर्फ गिनी चुनी पब्लिक के लिए लिए ही सूटेबल है।
कई बार फिल्म बनाते बनाते फिल्मकार अपनी कला में इतना ज़्यादा मगन हो जाते हैं की उन्हें याद ही नहीं रहता के आम आदमी इतनी ज़्यादा गहराईयों को समझने में सक्षम नहीं है। मैं दोबारा, सिर्फ भारत के लोगों की बात कर रहा हूँ क्यूंकि उन्हें ज़्यादातर सॉफ्ट कंटेंट एन्जॉय करना अच्छा लगता है, जैसे की Dubsmash और Vine जैसे प्लेटफार्म।
फिल्मकार की नज़र से देखा जाए तो मैं यही कहूँगा की बॉम्बे वेलवेट सिर्फ गिनी चुनी पब्लिक के लिए लिए ही सूटेबल है।
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